उत्तराखण्ड में चुनाव सम्पन्न होने के बाद पूरे प्रदेश को परिणामों की आस है। रोज़ नये कयास लगाये जाते हैं और रोज़ बातों-बातों में ही सरकार बनाकर गिरा भी देते हैं। कांग्रेस कार्यकाल दोहरायेगी या भाजपा 5 साल बाद सत्ता में वापिसी करेगी ये कहना जल्दबाज़ी होगी लेकिन किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी होगी। हालांकि प्रदेश की जनता से इस बार बहुत उम्मीदें थी। यूं तो प्रदेश चैथा विधानसभा चुनाव देख रहा है लेकिन अबकी बार हालात कुछ और हैं। सत्ता का जो मकड़जाल पिछले कुछ सालों में देखने को मिला है वो इस नवोदित राज्य के लिए बहुत नया था और एक बुरे ख्वाब की तरह था। शायद ही फिर कोई वो कुर्सी का लालच, सत्ता की मोह, रसूख और पावर की चाशनी, झंडे बदलने की होड़, विधानसभा परिसर में मारपीट और गाली-गलौज जैसे घोर अपराध को दोहराना चाहेगा। इसलिए इस बार प्रदेश की जनता की ओर नज़रे लगी हुई थी लेकिन कुछ भी नया होने की उम्मीद नहीं है।
इस प्रदेश का बड़ा दुर्भाग्य रहा है कि सत्ता की कुर्सी भाजपा और कांग्रेस की कठपुतली बनकर रही है। एक के बाद एक दोनों को काम करने का मौका मिला लेकिन हालात, नीति और मुश्किलें दोनों में काॅमन थे। बात यहां तक भी होती तो शायद सह ली जाती लेकिन इन सब के बावजूद सियासत का जो हथकंडा दिल्ली में बैठे हुए आकाओं के द्वारा खेला गया वो माथे पर लकीर डालने के लिए काफी था। पार्टी के हाईकमानों को दोनों तरह के मुखिया चाहिए थे। एक वो जो पैसा कमाकर दिल्ली पहुंचाना जानता हो और दूसरा वो जो जनता के बीच में छवि रखता हो। नित्यानन्द स्वामी से कहानी शुरू हुई लेकिन उनकी ईमानदारी शायद भाजपा को अखरने लगी और कोश्यारी को कमान सौंपी गई। पार्टी का ये दांव उल्टा पड़ा और एक बड़े बदलाव की मिसाल बनते हुए कांग्रेस पूर्ण की सरकार बनाने में कामयाब हो गई। कांग्रेस ने लम्बी पारी खेलने के लिए टेस्ट खिलाड़ी के तौर पर तिवारी को मैदान में उतारा और हरीश रावत के समर्थक मुंह देखते रह गये। कांग्रेस का भी ये दांव उल्टा पड़ा और 2007 की जंग भाजपा को सत्ता में वापसी करा गई। उस वक्त प्रदेश के कई कद्दावर नेता खुद की ताजपोशी का इंतेज़ार कर रहे थे लेकिन पैराशुट नेता के तौर पर मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी खण्डूड़ी को मिली। 2009 में भाजपा की लोकसभा चुनाव में 0-5 से हार पर रमेश पोखरियाल निशंक को भी मुख्यमंत्री बनने का मौका मिल गया लेकिन 2012 का चुनाव फिर खण्डूड़ी जरूरी के नाम पर लड़ा गया। हालांकि जीत एक कदम दूर रह गयी और कांग्रेस को सत्ता में वापसी का मौका मिला। पर हुआ वहीं जो भाजपा ने किया था। कमाने वाला कोई और वोट लाने वाला कोई और।
इस बार हालात कुछ और हैं। मुद्दें भी बदल चुके हैं। सिर्फ मुद्दे ही नहीं नेता भी बदल चुके हैं। सर पर टोपी और गले में पटके का रंग भी बदल चुका है। घर की छत पर झंडे और ईवीएम मशीन में चुनाव निशान भी बदल चुका है। सवाल ये भी नहीं है कि पार्टी छोड़ने वाले सही रास्ते पर हैं या पार्टी छोड़ने का कारण बनने वालों का रास्ता ठीक है। सवाल ये है कि विश्वास किस पर करे। जनता बड़े पशोपेश से होकर गुज़री है लेकिन कोई चमत्कार होने वाला नहीं है। हालात वही हैं बस कुछ चीजे़ं इधर-उधर हुई हैं।
इस चुनाव में बहुत कुछ नया हुआ है। पहली बार प्रदेश में किसी बड़े नेता को दो सीटों से चुनाव लड़ना पड़ रहा है और नेता भी वो जिन्हंे पहाड़ की छवि के तौर पर सम्बोधित किया जाता है और सीटें दोनों मैदान की हैं। पहली बार दोनों पार्टियों के प्रदेश अध्यक्ष अपनी-अपनी सीट पर इतनी मुश्किलों में नज़र आये हैं कि चुनाव के चरम पर अपने क्षेत्र से निकलने का मौका भी नहीं जुटा पाये। पहली बार ऐसा हुआ है कि भाजपा के स्टार प्रचारकों के सारे बयान सिर्फ एक नेता हरीश रावत के इर्द-गिर्द घूमते रहे हैं। पहली बार ऐसा हुआ है कि कांग्रेस के पोस्टरों से गांधी परिवार की तस्वीर गायब हुई है। ये पहला चुनाव है जहां दोनों पार्टी अपने घोषणा-पत्र की बात ना करके सिर्फ भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही हैं। पहली बार ऐसा हुआ है कि एक पार्टी ने पूरे प्रदेश को विज्ञापन से ढक दिया था और दूसरी पार्टी ने सिर्फ सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो से विपक्षियों को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। पहली बार ऐसा हुआ है कि एक तरफ मौजूदा मुख्यमंत्री है और दूसरी तरफ सारे पूर्व मुख्यमंत्री और फिर भी पलड़ा लगभग बराबर का ही रहा है। पहली बार ऐसा हुआ है कि कांग्रेस हरीश रावत की माया से बाहर नहीं निकल पायी और भाजपा कई कद्दाावर नेता की भरमार होने के बावजूद एक चेहरा सामने नहीं ला पायी। पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी ने सुबह को पार्टी की सदस्यता ली हो और शाम तक उसे विधानसभा चुनाव का टिकट मिल गया हो। ये भी पहली बार हुआ है कि सारी ज़िन्दगी कांग्रेस की सेवा करने वाले 90 साल के तिवारी को पार्टी बदलनी पड़ी और फिर भी बेटे को टिकट दिलाने में नाकामयाब रहे। ऐसा भी पहली बार हुआ है कि देश के दो सबसे प्रमुख स्टार प्रचारक की रैली निर्वाचन आयोग के फंदे में फंस गई हो। इतना सब होने के बाद भी किसी बड़े बदलाव की उम्मीद करना बेमानी होगी।
यूं तो प्रदेशवासी दोनों दलों की नूरा कुश्ती से खूब वाक़िफ हैं लेकिन कोई विकल्प ऐसा नहीं है जो हालात बदलने की ताकत रखता हो। ये दुर्भाग्य है कि पूरे प्रदेश का कोई नेता नहीं है। यदि कोई एक है भी तो सबको साथ लेकर चलने वाला नहीं है। पलायन रोकने और विकास करने की बात करने वाले ही जब पहाड़ की सीटों को छोड़कर मैदान का रूख करेंगे तो उनकी कथनी करनी का फर्क कैसे छुपा रह सकता है। कहने को तो राजनीति विचारधाराओं का रूप होता है लेकिन जब कुर्सी की मोह विचारधाराओं की दहलीज़ लांघकर दूसरे घर में प्रवेश करती है तो सियासत का ये रंग कैसे छुपा रह सकता है। मुख्यमंत्री बदलते हुए 17 साल कब गुज़र गये याद ही नहीं है। काश इन 17 सालों की कुछ उपलब्धि और विकास वाली भी यादें होती तो सियासत के इस घिनौने रूप से प्रदेश को रूबरू ना होना पड़ता।