क़ब्रिस्तान से श्मशान का फासला

 

पिछले कुछ सालों तक, जब धार्मिक सोहार्द की बात होती थी तो भारतवासी गर्वित महसूस करते थे। देश के कुछ कवि और शायर भारत में रहने वाले सभी धर्मों को फूलों की मिसाल देते थे और गुलशन हिन्दोस्तां होता था। अब असल में हिन्दोंस्तां बदल चुका है। एक हिन्दोंस्तां वो हैं जिनके दिलो-दिमाग में सांप्रदायिक ज़हर खोल दिया गया है। समाजवाद की जगह कट्टरवाद डेरा जमाकर बैठ गया है और एक हिन्दोस्तां आज भी कवितायें, गज़ल, नज़्म, गीत, संगीत, किस्सा, कहानी, लेखनी, भाषण, कार्यक्रम, स्टेज शो, नाटक, गली-चैराहों पर नुक्कड़ के रूप में नज़र आ जाता है। किस्से कहानी वाला वतन या सियासत वाला वतन। पूरी दुनिया में आज भी जब सरकार चलाने वाली पार्टी और विपक्षियां पार्टियां चुनाव के दौरान वोट मांगती है तो विज़न और मिशन दिखाई देता है। बहस के मुद्दे होते हैं जिनसे लोग इत्तेफाक़ भी रखते हैं और विरोध भी करते हैं। केवल भारत ही ऐसा देश हैं जहां जाति और धर्म चुनावी सीढ़ी का पहला पायदान होता है। जाति धर्म निकाल दो तो देश की सभी पार्टियां औधें मुंह गिर पड़ेगी। 90 फीसदी से ज़्यादा नेताओं की राजनीति खत्म हो जायेगी। आखिर ये जाति और धर्म बनते कैसे हैं? क्या देश की जनता चाहती है कि हिन्दू और मुसलमान की बात हो या देश के नेता उनके दिलो-दिमाग में ये ज़हर भर रहे हैं। क्या नेता वो बोलते हैं जो आवाम सुनना चाहती है या नेता जो बोलते हैं वो आवाम को सुनना और मानना पड़ता है। ये एक मजबूरी है या पसंद।

नेताओं की अब ब्रैंड वैल्यू होती है, जो जम्हूरियत की पसंद और नापसंद की भरपूर परख रखते हैं। किसी फिल्म स्टार की तरह दिल के कोने के मार्मिक भाग को छूना जानते हैं। जैसे किसी बड़े स्टार की फिल्म दिलो-दिमाग से नहीं उतरती ऐसे ही कुछ बयान मन में बैठ जाते हैं और मुद्दों की चिंगारी को हवा देने के लिए अब मीडिया भी कम नहीं हैं। यदि किसी एक ने मुंह से ज़हर उगला तो हम पलटवार में बाईट लेने के लिए विपक्षियों की कार का दरवाज़ा खटखटाते हैं क्योंकि सवाल एक ही है। क्या ये आवाम की पसंद है या मजबूरी। मजबूरी भी हो सकती है। दिन-रात टेलीविज़न और अखबार एक ही मुद्दा चीख रहे हैं और ना चाहते हुए भी आवाम को हिस्सा बनना पड़ रहा है और पसंद भी हो सकती है कि टेलीविज़न और अखबार वही दिखा रहे हैं जो देश की जनता देखना चाह रही है।

मजबूरी हो या पसंद लेकिन अब कब्रिस्तान से श्मशान का फासला बढ़ गया है। कब्रिस्तान और श्मशान दुख के अंतिम छोर हैं। लोग खुशी में शामिल ना हो, ईद और दिवाली पर मुलाकात ना करे लेकिन गम में शामिल हो जाते थे, पर अब फासला बढ़ गया है। कुछ लोग ही ये फासला तय कर पाते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फतेहपुर उत्तर प्रदेश में कहा था कि कब्रिस्तान बनते हैं तो श्मशान भी बनने चाहिए। यहीं अब राजनीति का स्तर है। ये सियासत की नई तरक्की है। ज़िन्दा रखने से ज़्यादा दफनाने या जलाने की जल्दी है। उत्तर प्रदेश की गिनती सबसे बड़े सूबों मे की जाती है। देश की राजनीति यूपी से चलती है और इस बार यूपी का चुनाव हर रंग देख चुका है लेकिन श्मशान और कब्रिस्तान की राजनीति पहली बार देखी गयी। सभी पार्टियां हिन्दू और मुसलमान चिल्ला रही थी। ऐसा लग रहा है कि सपा और कांग्रेस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व कर रही थी तो भाजपा हिन्दूओं का। बसपा, ब्राहम्ण, दलित और मुसलमानों के बीच उलझी हुई थी। रोज़ एक शगूफा नेताओं के मुंह से निकलता था जो शाम तक गांव और शहरों की चैपालों में चर्चा का विषय बन जाता था| ये शगूफा वोट में तब्दील भी हुआ| भाजपा को सत्ता मिली और योगी को कुर्सी| हालांकि योगी ने अपनी पहचान से हटकर काम किया है पर आवाम का बदलाव ये कहने पर मजबूर करता है कि अब देश का मिजाज़ बदल चुका है।

देश में कई बार हालातों ने करवट ली है लेकिन इतिहास के पन्नों को खंगालते हैं तो दो तरह का भारत देखने को मिलता है। एक भारत देश आज़ाद होने से पहले का है जो अंग्रेज़ों से लड़कर छीना गया है, जिसमें भगत सिंह की शहादत को भी याद किया जाता है तो अशफ़ाकउल्ला खां को भी नहीं भुलाया जाता है। जिसमें कांग्रेस, मुस्लिम लीग, राष्ट्रीय स्वयं सेवक और कई संगठन है जिनका पहला उद्देश्य अंग्रेज़ों से मुक्ति पाना था। वसीम बरेलवी साहब का वो शेर याद आता है कि, ‘घर सजाने का तसव्वुर तो बहुत बाद का है, पहले ये तय हो कि इस घर को बचाये कैसे‘। उस वक्त भी हिन्दू और मुसलमान के रोने से कहीं ज़्यादा बेहतर घर बचाना ज़रूरी था। खैर 1947 में घर बचा लिया गया। आज़ादी का मकसद पूरा हो गया। फिर दूसरे भारत की शुरूआत होती है। अहम की लड़ाई विकास की लड़ाई पर भारी पड़ जाती है। जिन्ना और नेहरू की खुदगरज़ी देश का बंटवारा बनकर सामने आती है लेकिन ये लड़ाई भारत और पाकिस्तान बनने तक सीमित नहीं रही। देश आज़ाद होने के बाद कट्टरपंथी का दौर हावी हुआ। कई बार देश में ऐसे हालात बने हैं कि हिन्दू और मुस्लिमों का टकराव हुआ है लेकिन देश की महान जनता ने हर लड़ाई से ऊपर उठकर भाईचारे को निभाया है। देश में धर्म के नाम पर हज़ारों दंगे हुए हैं और उन दंगों के बाद समझदार लोग ये कहते नज़र आते हैं कि ‘हालात बुरे होते हैं, इंसान नहीं‘।

अब कब्रिस्तान और श्मशान के फासले को खत्म करने का वक्त आ गया है। एक ओर वो समाज है जो सोशल मीडिया पर भड़काऊ बाते करके आखिर में ये कहना नहीं भूलता कि पक्का हिन्दू या पक्का मुसलमान होगा तो शेयर जरूर करेगा और पढ़ा लिखा युवा भी उसको सैंड टू आॅल कर देता है। हम मीडिया वाले उस वायरल मैसेज पर डिबेट करते हैं और प्राइम टाइम एंकर ये चिल्लाकर कहते हैं कि फलां समाज को टारगेट किया जा रहा है। ऐसे में ना देखने और सुनने वाले भी उसका हिस्सा बन जाते हैं। धर्म के नाम पर फैलायी जा रही जिस अफवाह और गंदगी को वहीं दबा देना चाहिए था उसे दिलो-दिमाग में उतारने की साजिश की जाती है। क्या इन बातों से देश बदलने वाला है। देश बदलना है तो टैक्नोलाॅजी और विज्ञान की बात होनी चाहिए, पश्चिमी देशों से विकास की होड़ होनी चाहिए। भारत के उत्पाद पूरी दुनिया में छा जाने चाहिए। मैड इन इंडिया और मैक इन इंडिया की बात होनी चाहिए। मुकाबला दुनिया के बड़े देशो से करना है। कुएं के मेंढक की तरह ना जीकर आसमां की परवाज़ करने वाले पंछियों को पीछे छोड़ना होगा। तब शायद हिन्दू और मुसलमान कब्रिस्तान और श्मशान की बात ना करे। ईद और दिवाली की एक सी रौनक़ हो। नवरात्र और रमज़ान पर लाइट आने या ना आने के झगड़े का हिस्सा ना बने।