हरीश रावत की 10 सबसे बड़ी गलती

देहरादून: उत्तराखण्ड में पहाड़ की आवाज़ और पहचान के रूप में खुद को स्थापित करने वाले हरीश रावत की इतनी बुरी हार कई कहानी बयां करती है। भाजपाई तो मोदी लहर का नारा लगाकर फूले नहीं समा रहे हैं लेकिन सिर्फ मोदी का जादू इतनी बड़ी जीत की वजह नहीं बन सकता। हरीश रावत ने जो माहौल पिछले तीन सालों में बनाया था, ये बहुमत उसका परिणाम है। यूं तो भावनात्मक रूप से हरीश रावत ने पहाड़वासियों के दिल को छूने की बहुत कोशिश की। मंडवा, झंगोरा की बात भी की और गाड-गदेरो का दर्द भी जाहिर किया। बीजापुर के दो कमरों से सरकार चलायी और सीएम हाउस में शिफ्ट ना होने की वजह को आपदा के दर्द से जोड़ा। सड़को के किनारे खूब चाय की चुस्कियां ली और भंडारों में ज़मीन में बैठकर दाल-भात खाये लेकिन फिर भी जनता के प्रिय नहीं बन सके। आखिर क्यों? ये 10 वजह हरीश रावत की सबसे बड़ी गलती हैं, जिन्होंने भाजपा को सत्ता की कुर्सी पर बैठा दिया।

वसी ज़ैदी, वरिष्ठ पत्रकार

रूठे हुए साथियों को मनाने में नाकाम: हरीश रावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद उत्तराखण्ड के कद्दावर नेता सतपाल महाराज भाजपा में शामिल हो गये थे। ये मान लेते हैं कि उस वक्त हरीश रावत उनकों मनाने में समर्थ नहीं थे लेकिन उनके बाद जो चिंगारी शोला बनकर भड़की उसका हरीश रावत ने खामोशी से सिर्फ तमाशा देखा है। यदि हरीश रावत चाहते तो उस समय विजय बहुगुणा सहित 10 विधायक और बाद में यशपाल आर्य और एनडी तिवारी जैसे कद्दावर और कई दशक से कांगे्रस की सेवा करने वाले उनका साथ नहीं छोड़ते।
टीम वर्क करने में फिसड्डी साबित हुए: हरीश रावत ने पिछले तीन सालो में अकेला चलो की रणनीति अपनायी। उन्होंने अपने उन साथियों की अनदेखी की जो कई दशकों से उनकी छांव तले उनके साथ खड़े थे। किशोर उपाध्याय, शूरवीर सिंह सजवाण, केदार सिंह रावत और ऐसे ना जाने कितने नाम हैं जो उनके होकर भी उनके नहीं रह पाये। राज्य सभा की सिफारिश, मंत्री पद, लाल बत्ती और सभी कार्यक्रमो में अपने इर्द-गिर्द चेहरे इस बात की गवाही देते हैं कि टीम वर्क में हरीश रावत नाकाम साबित हुए हैं। पिछले तीन सालों में कांगे्रस प्रदेश कार्यालय से बीजापुर की दूरी लगातार बढ़ती चली गयी थी।
पीडीएफ प्रेम भी ले डूबा: ये कहने में कोई दो राय नहीं है कि पीडीएफ ने कांग्रेस की नैया को पार लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ी और कांगे्रस का भी धर्म बनता था कि कांग्रेस पीडीएफ का हमेशा साथ निभाये लेकिन हरीश रावत पीडीएफ को लेकर एक अलग ही चर्चा में रहे। उनके मलाईदार विभाग ही नहीं बल्कि सीएम के हमेशा इर्द-गिर्द रहना भी कांग्रेसियों को कभी नहीं पच पाया। यहां तक भी ठीक था लेकिन टिकटों के बंटवारे पर हरीश रावत एक तरफ की भूमिका निभाने में नाकाम हुए। या तो सभी पीडीएफ विधायक कांग्रेस की सीट पर लड़ते पर कांग्रेस उन्हें समर्थन देती लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। दो विधायक कांग्रेस की सीट पर लड़े, एक विधायक के खिलाफ डमी प्रत्याशी उतारा गया और एक विधायक के खिलाफ प्रत्याशी उतारने के बाद उस पर नाम वापिस लेने का जोर दिया गया। यानि पीडीएफ का ये कैसा प्रेम था कोई नहीं समझ पाया।
किसी पर नहीं था भरोसा़: कांग्रेस के कार्यकर्ता ही नहीं हरीश कैबिनेट के कई मंत्री खुली ज़बां में ये आरोप लगाते चले आ रहे थे कि हरीश सरकार की सारी पावर सीएम कार्यालय तक सीमित है। सिर्फ मुख्यमंत्री के विभाग ही नहीं अन्य सभी विभागों में भी सीएम कार्यालय की दखल अंदाज़ी होती थी। सिर्फ इतना ही नहीं कई छोटे स्तर के अधिकारियों के ट्रांसफर में भी हरीश की सहमति जरूरी होती थी। एक दो मंत्री और एक दो अधिकारियों के अलावा हरीश रावत किसी पर भरोसा नहीं कर पाये।
कुमाऊं प्रेम में उलझकर रह गये: हरीश रावत को पूरे प्रदेश का सबसे बड़ा नेता बनाने में कुमाऊं से ज्यादा गढ़वाल को श्रेय दिया जाता है क्योंकि अल्मोड़ा संसदीय सीट पर बच्ची सिंह रावत से लगातार हारने के बाद 2009 में हरीश रावत को हरिद्वार की जनता ने ही लोकसभा पहुंचाया था लेकिन हरीश रावत को जब सत्ता मिली तो उनका कुमाऊं प्रेम हमेशा छलकता रहा है। प्रदीप टम्टा को राज्य सभा की सिफारिश हो या रणजीत रावत को सारी कमान सौंपना। हर बार गढ़वाल के कार्यकर्ताओं और नेताओं पर कुमाऊं हावी रहा है।
पहाड़ से रिवर्ट माइग्रेशन: हरीश रावत ने पिछले तीन सालों मंे एक पहाड़ के रियल नेता की छवि बनायी और जनता ने उनकी इस बात को भी खासा सराहा था कि मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा सीट के लिए उन्होनंे अन्य मुख्यमंत्रियों की तरह खरीद फरोख्त ना करके अपने एक शिष्य की सीट खाली करायी थी और धारचुला से विजय प्राप्त की थी लेकिन अब फिर वो पहाड़ से रिवर्ट माइग्रेशन कर गये जो काफी ताज्जुब भरा था। उनकी दोनों पंसदीदा सीट हरिद्वार ग्रामीण और किच्छा पहाड़ का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी।
टीम पीके पर ज़्यादा भरोसा: प्रशांत किशोर को इस चुनाव में हार का सबसे बड़ा विलेन माना गया है। राहुल गांधी के चहेते पीके इस चुनाव में कांग्रेस को पीछे धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ पाये। एक ओर जहां भाजपा ने प्रचार-प्रसार के सारे रिकार्ड तोड़ दिये तो वहीं कांग्रेस ने पीके की रणनीति के मुताबिक सिर्फ सोशल मीडिया का सहारा लिया। हरीश का बाहुबली, दबंग और राउडी अवतार जनता को हंसाने के काम आया तो लेकिन वोट में तब्दील नहीं हो सका। वहीं पीके के चलते संगठन के कई कद्दावर लोग हरीश से नाराज़़ हो गये।
भ्रष्टाचार पर आंखे बंद करना: एक पत्रकार के साथ कथित स्टिंग वीडियो में हरीश को दिखाया गया है कि वो मंत्रियों के भ्रष्टाचार पर आंखें बंद करने की बात कर रहे हैं। यहीं सवाल प्रदेश की जनता को भी हज़्म नहीं हुआ कि एक ईमानदार मुख्यमंत्री का यूं आंखे बंद करना कितना जायज़ है। खुद तो हरीश रावत पत्रकारों को भी अपने कमरे खोलकर दिखाते हैं कि मैंने जो कमाया है वा ेले जाओ लेकिन साथियों के भ्रष्टाचार पर आंखे बंद कर लेना प्रदेश की जनता को दोहरे चेहरे के अलावा कुछ और नज़र नहीं आया।
स्टिंग, शराब और खनन नीति: हरीश रावत पर भाजपा के सबसे बड़े आरोप शराब और खनन नीति थी। हरीश पर कोई जोक भी बना तो डेनिश शराब को लेकर ही बना। हरीश जाते थे तो डेनिश विदा हो जाती थी, हरीश आते थे तो डेनिश आ जाती थी। इतने आरोपों के बाद भी हरीश रावत खुलकर शराब नीति नहीं बना पाये। वहीं अवैध खनन पर आरोप लगाते हुए हरक सिंह रावत ने यहां तक कहा था कि रोज 50 करोड़ सीएम दरबार में खनन के नाम पर आता है। सरकार यूँ तो खनन के पट्टों

को पूर्व मुख्यमंत्री के कार्यकाल से जोड़ती रही लेकिन खुद उसका दुरूपयोग भी करती रही।
टिकटों का बंटवारा: आखिरी और सबसे बड़ी गलती हरीश रावत की टिकटों के बंटवारे को लेकर रही है। कुमाऊं में तो सभी सीटों पर सिर्फ हरीश रावत की चली है लेकिन गढ़वाल में भी अधिकतर सीटों पर उन्होंने किशोर को बोलने नहीं दिया। एक ओर जहां हरीश रावत कांग्रेस के विधायको के जाने को गंदगी साफ होने से जोड़कर देख रहे थे वहीं उन्होंने भाजपा के दल बदलू पर भी खूब भरोसा किया है। एक ओर कार्यकर्ता विधायकों के जाने से टूट रहे थे वहीं इम्पोर्ट किये गये नेताओं ने भी कार्यकर्ताओं को मायूस करने मे कोई कसर नहीं छोड़ी। इतना ही नहीं अपने लिए दो सीटें चुनना और किशोर को अजनबी सीट पर उतारना भी उनकी दोहरी चाल थी जो उनके गले की फांस बन गई।